1. “विशिष्ट साहित्यिक समुदाय” की
अवधारणा:
एक
भारतविद् के दृष्टिकोण से1
लेखक: सिर्गेइ सेरेब्र्यनी
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास
स्लवाक शास्त्रज्ञों द्वारा प्रस्तुत और
विकसित “विशिष्ट साहित्यिक समुदाय” की अवधारणा साहित्य-शास्त्र को एक महत्वपूर्ण
देन है 2 . इस प्रकार की अवधारणाओं की उत्पत्ति यूरोपकेन्द्रीकरण (सही
कहें तो, पश्चिमी-यूरोपकेन्द्रीकरण)
को पार करने की प्रक्रिया का एक अंश है, जो आजकल
मानविकी ज्ञान की अनेक शाखाओं की विशेषता है.
यह सर्वविदित है कि आधुनिक मानविकी
शास्त्र (साहित्यशास्त्र समेत) मूल रूप से नवयूरोपीय संस्कृति की ही उपज है. इन
शास्त्रों की अति महत्वपूर्ण अवधारणाएँ बहुतांश में 19वीं शताब्दी में रखी गई थीं, पश्चिमी
यूरोप के सांस्कृतिक वातावरण में, जो स्वयम् को
मानवता के इतिहास का सर्वोच्च बिन्दु और अन्य लोगों के विकास का मापदण्ड समझता था
(और उसके पड़ोसी भी आम तौर पर उसे ऐसा ही समझते थे). इसलिए ये अवधारणाएँ, जिन्हें पश्चिमी यूरोपीय अनुभव के आधार पर रचा गया था, सार्वत्रिक समझीं गईं, उन्हें प्रत्येक देश-काल के
लिए, समस्त युगों तथा संस्कृतियों के लिए उचित समझा गया. मगर
समय के साथ-साथ यह स्पष्ट होता गया कि अनेकों अवधारणाएँ, जिन्हें
पश्चिमी यूरोप में विकसित किया गया था, पूर्वी यूरोप की
वास्तविकता का भी पर्याप्त वर्णन करने में असमर्थ हैं, गैर
यूरोपीय पूर्व की तो बात ही छोड़िए.
20वीं शताब्दी में,
विशेषकर द्वितीय महायुद्ध के बाद, ग़ैर-यूरोपीय
संस्कृतियों का महत्व मानविकी और सामाजिक शास्त्रों संबंधी शोधकार्यों में बढ़ने
लगा और यह अधिकाधिक स्पष्ट होने लगा कि एक नई ठोस, अनुभवसिद्ध
सामग्री विगत की संकल्पनाओं और मान्यताओं के ख़ाके में नहीं बैठती हैं. साथ ही
विज्ञान में तथ्यों एवम् समस्याओं कावैश्विक (सार्वभौमिक) स्तर पर अवलोकन करने की
प्रवृत्ति प्रबल होती गई (‘विश्व-इतिहास’, ‘विश्व-साहित्य’ इत्यादि). इसलिए वर्तमान में
शोधकर्ता अधिकतर तथा अधिकाधिक तीव्रता से सार्वभौमिक अवधारणात्मक साधन समूहों के
निर्माण की आवश्यकता का अनुभव कर रहे हैं, जो – आदर्श रूप
में – मानवीय संस्कृति की समूची विविधता का – आधुनिक तथा ऐतिहासिक स्तर पर –
पर्याप्त रूप से वर्णन करने में समर्थ हो सके.
पिछले दशकों में सोवियत
शास्त्रज्ञों ने “विश्व (वैश्विक) साहित्य” विषय पर काफ़ी ध्यान दिया है”3.
स्वाभाविक है कि जब नव यूरोपीय साहित्यिक अवधारणाओं को विभिन्न सांस्कृतिक
परिवेशों में प्रतिस्थापित किया जा रहा था तो अनेक प्रकार की समस्याएँ उपस्थित
हुईं. इस समूह की एक प्रमुख समस्या है – स्वयम् अवधारणा,
अधिक सही कहें तो, स्वयम् शब्द “साहित्य” (
रूसी भाषा में : literatura)4.
रूसी में,
अन्य यूरोपीय भाषाओं की ही भाँति, इस शब्द के
कम से कम दो अर्थ हैं, या, अर्थों के
दो परस्पर संबंधित समूह हैं, और यह ज़रूरी नहीं है कि उनके
बीच की सीमा रेखा हमेशा ही सही-सही परिभाषित हो. व्याकरण की दृष्टि से ये दोनों
अर्थ-समूह एक दूसरे के विरुद्ध रखे गए हैं, इस प्रकार कि
पहली हालत में शब्द “साहित्य” अगणनीय संज्ञाओं की श्रेणी में रखा गया है, और दूसरी में – गणनीय संज्ञाओं की, अर्थात् उसका
बहुवचन संभव है, और आर्टिकल (उपपद) वाली भाषाओं में – एकवचन
में अनिश्चित उपपद का प्रयोग किया जाता है (उदा. अंग्रेज़ी में : a
literature; जर्मन में: eine literature; फ्रेंच
में: une literature). पहली अवस्था में ‘साहित्य’ शब्द से तात्पर्य है, लिखित (मुद्रित) पाठों का समूह, सामान्यतः – मौखिक
साहित्य से भिन्न (या/और संस्कृति के अन्य रूपों, जैसे संगीत
से भिन्न), या ललित रचनाओं का समूह ( ‘ललित’
साहित्य’) – उन पाठों से भिन्न जिन्हें
तथ्यात्मक/अकाल्पनिक समझा जाता है. दूसरी दशा में ‘साहित्य’
शब्द से तात्पर्य है पाठों के किसी समूह से, जो
पाठों के अन्य समूहों से किन्हीं साहित्यिक-सांस्कृतिक कारणोंवश (भाषा, युग, देश इत्यादि) भिन्न है, उनके
परिवेश से बाहर है. दोनों अवस्थाओं में, परिणामस्वरूप बात
होती है पाठों के समूह (समुच्चय) के बारे में, मगर ‘साहित्य’ शब्द के विभिन्न अवतार पाठों के वर्गीकरण
के सिद्धांतों के आधार पर एक दूसरे से भिन्न समझे जाते हैं.
‘साहित्य’
की अवधारणा का अखिल वैश्विक – ऐतिहासिक (सार्वभौमिक) स्तर पर प्रयोग
करते समय इस शब्द के दोनों ही प्रकार के अर्थ विशिष्ट प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न
करते हैं. पहली दशा में यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि किसी
युग, किसी संस्कृति का कौनसा पाठ-समूह ‘साहित्य’ (‘ललित साहित्य’) की
अवधारणा में सम्मिलित किया जाए. आम तौर पर इस प्रश्न का समाधान विभिन्न युगों एवम्
संस्कृतियों के संदर्भ में भिन्न-भिन्न प्रकार से ढूँढ़ा जाता है, जो वैज्ञानिक विधि की दृष्टि से मुश्किल से सही कहा जा सकता है. चूँकि
प्रस्तुत लेख के लिए यह समस्या महत्वपूर्ण नहीं है, हम इसे
एक ओर रख देते हैं. यहाँ हमारी रुचि है दूसरी दशा में, “साहित्य”
शब्द के उपरोक्त वर्णित दूसरे अर्थ समूह में.
विश्व (अखिल वैश्विक)
साहित्य – समकालिक तथा विविधकालिक – आम तौर पर कई भागों से मिलकर बना हुआ समझा
जाता है, जिनका नाम भी किसी मर्यादित
गुणवाच्क विशेषण के साथ ‘साहित्य’ ही
है. आम तौर से कहा जाए तो ये मर्यादित गुणवाचक विशेषण के साथ ‘साहित्य’ शब्द के साथ उसके गणनीय रूप में
भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, साहित्य का वर्गीकरण किया जा सकता है भाषा के आधार पर (उदा, अंग्रेज़ी भाषा का साहित्य), देश के आधार पर
(फ्रांसीसी साहित्य या फ्रांस का साहित्य), कालावधि के आधार
पर (20वीं शताब्दी का साहित्य), भूखण्ड के आधार पर (यूरोप का
साहित्य) इत्यादि. इस दशा में न केवल लक्षण अपितु वर्गीकरण के पैमाने भी
भिन्न-भिन्न हो सकते हैं (‘शताब्दी का साहित्य’, दशक का साहित्य’, चालू वर्ष का साहित्य’ इत्यादि; ‘देश का साहित्य’ – प्रदेश
का साहित्य’ इत्यादि).
यहाँ सामान्य मानव-जाति
विज्ञान (ethnology) [सांस्कृतिक मानव-विज्ञान
(cultural anthropology)] तथा मानव जन-सांख्यिकी (ethnodemography)
के बीच सादृश्य दिखाना बड़ा दिलचस्प है. मानव-जाति विज्ञान में एक
प्रमुख अवधारणा है – ‘संस्कृति (‘सभ्यता’).
शोधकार्य के लक्ष्य के अनुसार इस अवधारणा को विभिन्न आयाम दिए जा
सकते हैं : जैसे कि ‘सहारा’ के दक्षिण
की अफ्रीकी संस्कृति’ और ‘क्ष’ (अमुक) गाँव की संस्कृति. क्लोद लेवी-स्ट्रॉस ने लगभग सामान्य रूप से
स्वीकृत मत को प्रदर्शित करते हुए लिखा है : “वह, जिसे एक ‘संस्कृति’ कहा जाता है (फ्रेंच भाषा में: ‘une
culture’, अंग्रेज़ी में : ‘a culture’), वह
मानवता का ऐसा अंश है, जो प्रस्तुत शोधकार्य की दृष्टि से, और उस स्तर पर, जिस पर यह शोधकार्य किया जा रहा है
– शेष मानवता से महत्वपूर्ण भिन्नताओं को दिखाता है”5. आधुनिक
मानव-जाति विज्ञान (ethnology) [और
मानव–जाति सांख्यिकी( ethnodemography)] की एक और सर्वाधिक
महत्वपूर्ण अवधारणा है “ethnos” (इस पारिभाषिक शब्द का हिंदी
में सन्निकट अनुवाद ही किया जा सकता है: “जाति, “जन”, “जनता”)6. मगर पूरी मानव जाति के
(आधुनिक, अर्थात् समकालिक स्तर पर भी) “एत्नोसों”, “जातियों” (“जनों”) की शब्दावली में समग्र वर्णन की कोशिशों को कुछ
महत्वपूर्ण कठिनाइयों से जूझना पड़ता है. सोवियत मानव-जनसांख्यिकी विशेषज्ञ सोलोमन
ईल्यिच ब्रूक लिखते हैं : “उन जातियों की गणना-सूची बनाना, जो
पृथ्वी के किसी भाग में बसती हैं, काफ़ी हद तक निर्भर करता
है...उस विवरण के स्तर पर, जिससे हम प्रस्तुत देश का अध्यन
करने चले हैं...[उदाहरण के लिए], हमारे सम्मुख रखे गए
उद्देश्य के अनुसार इण्डो-अमेरिकन जातियों को एक समग्र रूप में देखा जा सकता है या
फ़िर उन्हें भाषाई परिवारों में तथा सशक्त राष्ट्रीयताओं में विभाजित किया जा सकता
है, अथवा छोटे-छोटे कबीलों में उपविभाजित किया जा सकता है,
जिनकी संख्या 700 से ऊपर है”7. सो.
ई. ब्रूक “एक ही स्तर पर सभी क्षेत्रों की आधुनिक जातियों (एत्नोसों) की गणना सूची
देने का प्रयत्न करते हैं”8.
स्पष्ट है,
कि ‘विश्व साहित्य’ का
घटकों में विभाजन मानव जाति के ‘संस्कृतियों’ अथवा ‘जातियों’ (एत्नोसों) में
विभाजन के समान है : काफ़ी कुछ यहाँ निर्भर करता है शोधकार्यों के लक्ष्यों और
स्तरों पर. यह भी स्पष्ट है कि ‘विश्व साहित्य’ का समग्र रूप से अध्ययन करते समत इस समग्र के घटकों को परिभाषित करने के
लिए किसी एक सिद्धान्त (या सिद्धान्तों की प्रणाली) और तुलना किए जा रहे स्तरों की
एक ही प्रणाली का उपयोग करना वांछित होगा. मगर यह कहना कठिन है कि यह आदर्श स्थिति
कहाँ तक प्राप्त हो सकती है.
‘एक साहित्य’
के, उसके वर्णन एवम् शोध हेतु, वर्गीकरण का लगभग मूल सिद्धांत है पाठों के किन्हीं समूहों का किसी मानव
समुदाय (जातीय, राष्ट्रीय, धार्मिक
इत्यादि) से परस्पर संबंध. वास्तव में पाठों के किसी समुच्चय का आन्तरिक समंवय
अक्सर इन पाठों को रचने वाले और / अथवा उनको ग्रहण करने वाले एवम् सुरक्षित रखने
वाले लोगों के बीच परस्पर संबंधों द्वारा पर्याप्त स्पष्टता से निर्धारित किया
जाता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो किसी साहित्य की एकता
किसी मानव-समुदाय की एकता द्वारा सुनिश्चित की जाती है. यह मानना होगा कि इस
प्रकार का दृष्टिकोण ‘अखिल विश्व साहित्य’ के स्तर पार सामान्यीकरण के लिए सिद्धान्नत रूप में उचित है और इसकी
विशेषताओं में से एक यह है कि वह मानवता के इतिहास के अन्य विभिन्न पहलुओं से ‘संधान’ स्थापित करने की इजाज़त देता है9 .
19वीं शताब्दी में यूरोप
में ‘राष्ट्र’ (Nation) की
धारणा ने प्रथम स्थान ग्रहण कर लिया10 . परंपरागत धर्म को सीमित करके ‘राष्ट्र’ को लगभग सर्वोच्च मूल्यवान वस्तु समझा जाने
लगा, जो लोगों को एक समाज में संगठित करता था, और एक अन्य दृष्टिकोण से – मानवीय समुदाय का ‘ऐतिहासिक
दृष्टि से सर्वोच्च’ रूप माना जाने लगा. इतिहास को राष्ट्र
के इतिहास के रूप में स्वीकार किया जाने लगा11, साथ
ही साहित्य एवम् संस्कृति, अपनी समग्रता में, - ‘राष्ट्रीय संपत्ति’, और साहित्य का इतिहास – ‘राष्ट्रीय साहित्यों का इतिहास’ माना जाने लगा. ‘राष्ट्रीय साहित्य’ की अवधारणा साहित्य शास्त्रज्ञों
के लिए एक मूलभूत एवम् स्वयंसिद्ध अवधारणा बन गई, और आज तक
यही स्थिति बनी हुई है. उदाहरण के लिए इ. ग्रि. नेउपकोयेवा की उपर्निर्दिष्ट
पुस्तक में विश्व साहित्य को ‘राष्ट्रीय साहित्यों’ से मिलकर बना हुआ माना गया है. ‘राष्ट्रीय साहित्य’ – मानो प्रस्तुत गणना पद्धति की न्यूनतम इकाई है, जिसके
समानार्थी कथन हो सकते हैं – ‘एक साहित्य’, पृथक साहित्य’12.
मगर जिस प्रकार ‘राष्ट्र’ की अवधारणा का संबंध सबसे पहले यूरोप के इतिहास
के किसी विशिष्ट कालखण्ड से है और ज़रूरी नहीं कि इस कालखण्ड और/अथवा इस महाद्वीप
के बाहर वह स्वीकार्य हो, उसी प्रकार ‘राष्ट्रीय
साहित्य’ की अवधारणा भी सार्वत्रिक नहीं है, वह विश्व साहित्य के सामान्य ऐतिहासिक चित्र में एकमात्र न्यूनतम इकाई
होने का दम नहीं भर सकती. उदाहरणार्थ, जैसा कि आगे देखेंगे,
आधुनिक भारत के कुछ अति सशक्त साहित्य ‘राष्ट्रीय’
नहीं कहे जा सकते, क्योंकि उनके पीछे कोई ‘राष्ट्र’ नहीं है.
मगर उस ऐतिहासिक-
सांस्कृतिक संदर्भ की सीमाओं में भी, जिसमें ‘राष्ट्रीय साहित्य’ की अवधारणा उत्पन्न हुई और जहाँ
वह अत्यंत सार्थक है, वह अवधारणा - या
सच कहें तो उसका सर्वाधिक प्रचलित अर्थ – सम्पूर्ण पर्याप्तता से यथार्थ को
प्रदर्शित नहीं करती. यह धारणा, यह कल्पना इस बात में निहित
है कि प्रत्येक राष्ट्र का, प्रत्येक कौम का अपना साहित्य
होता है और, इसके विपरीत, हर साहित्य
किसी विशेष्ट राष्ट्र की ‘मिल्कियत’ होता
है और किसी तुलनात्मक अर्थ में किसी अन्य राष्ट्र की मिल्कियत नहीं हो सकता. सभी
राष्ट्र, एक को छोड़कर, उस साहित्य को
सिद्धांतत: किसी अन्य प्रकार से ग्रहण करते हैं, ‘अपना’
नहीं, बल्कि ‘पराया’
समझते हैं. राष्ट्रीय साहित्यों के बीच, ठीक
वैसे ही जैसे राष्ट्रों के बीच होता है, कमोबेश परस्पर संबंध
संभव है, मगर गणनात्मक एवम् गुणात्मक दृष्टि से इस प्रकार के
परस्पर संबंधों की तुलना राष्ट्र और उसके साहित्य के बीच विद्यमान आंतरिक
पारस्परिक संबंध से नहीं की जा सकती.
‘विशिष्ट
साहित्यिक समुदायों’ की अवधारणा का उद्भव राष्ट्रीय
साहित्यों के बारे में इन्हीं अवधारणाओं से असहमति के कारण हुआ. संक्षेप में कहें
तो इस अवधारणा का सार इस प्रकार है : कई
राष्ट्रीय साहित्यों के बीच ऐसा परस्पर संबंध होता है कि “उनके ऐतिहासिक विकास के
दौरान एक साहित्य की दूसरे में परस्पर उपस्थिति” के बारे में बात की जा सकती है
(स्लोवाक शास्त्रज्ञ एस. श्मात्लक? के अनुसार)13 .
यदि ‘एक साहित्य’ से तात्पर्य एक तरफ़
अनेक लेखकों और पाठकों से, तथा दूसरी ओर अनेक पाठकों से हो,
तो ‘विशिष्ट साहित्यिक समुदाय’ की परिस्थिति – ऐसी परिस्थिति होगी, जिसके अन्तर्गत
विभिन्न साहित्यों के (दो, तीन या उससे भी अधिक) अनेक लेखक,
पाठ एवम् पाठक, गणित की भाषा में कहें तो,
एक दूसरे को ‘छेदते’ हैं
: अर्थात् एक ही और वही लेखक और/ अथवा पाठ एक से अधिक साहित्य की (किसी न किसी
अर्थ में) मिल्कियत ग्रहण कर सकते हैं (द्वि-साहित्यिक, त्रि-साहित्यिक
इत्यादि हो सकते हैं). ठोस उदाहरण के रूप में स्लवाक शास्त्रज्ञ उल्लेख करते हैं
चेक तथा स्लवाक, स्लवाक तथा हंगेरियन साह्त्यों के विशिष्ट
समुदाय, पूर्वी स्लाविक (रूसी, युक्रेनी,
बेलोरूसी) तथा दक्षिणी स्लाविक ( सेर्बियन, खर्बाती,
स्लावेनी, मॉटनेग्री) साह्त्यों के विशिष्ट
समुदाय, स्पेनी साह्त्यों के विशिष्ट समुदाय (स्पेनिश,
कतालान, गलिरियाई और बास्क), अंग्रेज़ी भाषी, फ्रांसीसी भाषी, स्पेन भाषी, जर्मन भाषी इत्यादि साहित्यों के
विशिष्ट समुदायों का.
साहित्य के इतिहास के बारे
में पश्चिमी यूरोपकेंद्रित अवधारणाओं के संशोधन के रूप में उत्पन्न’
विशिष्ट साहित्यिक समुदायों’ की अवधारणा,
हमारे मत में पूर्वविदों, खासकर भारतविदों के लिए भी बहुत मूल्यवान
है. हम प्रस्तुत लेख में दिखाने का प्रयत्न करेगे कि यदि यह अवधारणा, हमारे मत में, पूर्वविदों, ख़ासकर
भारतविदों के लिए भी बहुत मूल्यवान है. हम प्रस्तुत लेख में दिखाने का प्रयत्न
करेंगे कि यदि यह अवधारणा भारतीय (दक्षिण एशियाई) सामग्री पर लागू की जाए तो उसे
अधिक विस्तृत, अधिक व्यापक अर्थ प्राप्त होगा, उसकी अपेक्षा जो उसे आरंभ में स्लवाक शास्त्रज्ञों ने दिया था. यह ज़रूरी
नहीं है, कि ‘विशिष्ट साहित्यिक समुदाय’,
‘राष्ट्रीय साहित्यों” का समुदाय हो. दूसरे शब्दों में, ‘विशिष्ट साहित्यिक समुदाय’ – ‘राष्ट्रीय साहित्य’
की अपेक्षा एक अधिक सार्वभौमिक अवधारणा है.
* *
* * *
भारत (दक्षिण एशिया)14
में – ऐतिहासिक तथा आधुनिक, दोनों स्तरों पर –
मानवीय समुदायों की विराट विभिन्नता है. तदनुसार, साहित्य
शास्त्री को साहित्यों की एवम् साहित्यिक समुदायों की एक विशाल विविधता दृष्टिगोचर
होती है. दक्षिण एशिया – एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवधारणा है, लगभग उतने ही परिमाण की, जितना यूरोप है और इस भूभाग
के साहित्य एक सम्मिश्रण जैसे प्रतीत होते हैं, जिसकी तुलना
यूरोपीय साहित्य के सम्मिश्रण से की जा सकती है, और जो,
हो सकता है, अपनी जटिलता एवम् घटक अवयवों की
संख्या में, उससे भी बढ़कर हो15. भाषाविदों के
अनुसार दक्षिण एशिया में विविध भाषाओं की संख्या 200 से कम नहीं है16.
हाँलाकि सशक्त भाषाएँ, अर्थात् लोगों के बड़े-बड़े समूहों को
संयोजित करने वाली और/अथवा कमोबेश विकसित साहित्यिक परंपरा रखने वाली भाषाओं की
संख्या इससे काफ़ी कम, कुल 20-30 ही है.
भारत की अत्यन्त
महत्वपूर्ण भाषाओं में से एक है – संस्कृत. भारतीय संस्कृति के इतिहास में इसकी
भूमिका की तुलना यूरोपीय संस्कृति के इतिहास में लैटिन की भूमिका से की जा सकती
है. यूरोप में लैटिन को धीरे-धीरे उसके ‘वंशजों’,
जीवन्त रोमान्स भाषाओं ने तथा उसकी ‘दत्तक
संतानों’ जर्मन, स्लाविक एवम् अन्य
समुदायों की भाषाओं ने पराजित कर दिया; भारत में समय के
साथ-साथ संस्कृत नई इण्डो-आर्यन भाषाओं (जिनका संस्कृत के साथ वैसा ही संबंध है
जैसा रोमान्स भाषाओं का लैटिन से, और साथ ही द्रविड़ भाषाओं )’दत्तक संतानों) द्वारा खदेड़ दी गई. मगर इस प्रक्रिया की अनेक विशेषताएँ
रहीं, जिनका यूरोप में कोई साम्य नहीं है.
पहली,
लिखित रूप (लिपि) प्राप्त किया (नई इण्डो-आर्यन भाषाओं से पहले) उसी
परिवार के भाषाई विकास के कम से कम दो दरम्यानी कालखण्डों के प्रतिनिधियों,
तथाकथित ‘प्राकृत भाषाओं’17
और तत्पश्चात् अपभ्रंश भाषाओं ने18. इन भाषाओं में कुछेक
कमोबेश सीमित साहित्यिक परंपराओं के बारे में बात की जा सकती है. इनका अध्ययन
पर्याप्त रूप से नहीं हुआ है, मगर जहाँ तक अनुमान लगाया जा
सकता है, इन साहित्यों के प्रादुर्भाव का संबंध किन्हीं
जातीय समुदायों के निर्माण से उतना नहीं था, जितना कि अन्य
सामाजिक प्रक्रियाओं से (जैसे कि धार्मिक आन्दोलन; इस प्रकार
प्राकृत का एक रूप जैन धार्मिक ग्रंथों की पवित्र भाषा बना).
दूसरी,
मुसलमान, जो कई शताब्दियों तक (13वीं से
18वीं-19वीं शताब्दी तक) राजनैतिक रूप से उपमहाद्वीप पर शासन करते रहे, अपने साथ इस्लाम की दो प्रमुख भाषाएँ : अरबी तथा फ़ारसी भी लाए, जिन्होंने भारत में संस्कृत के ही समान ‘क्लासिकल’
भाषाओं का दर्जा प्राप्त किया. अरबी, मुख्य
रूप से, भारत में मदरसों की, पारंपरिक
मुस्लिम शिक्षा की भाषा थी और इससे कम (काफ़ी कम भी नहीं) स्तर पर – ललित साहित्य
की भाषा थी. फ़ारसी कुछ शताब्दियों तक इस्लामी राज्यों की शासकीय भाषा और एक समृद्ध
भाषा बनी रही, जिसकी रचना आप्रवासियों ने एवम् साथ ही
स्थानीय निवासियों ने की19. भारत में फ़ारसी साहित्य “धारकों”20
का कोई सुगठित समूह (एत्नोस) नहीं है, और ऐसा प्रतीत होता है
कि कभी था भी नहीं, इसके बावजूद, भारतीय
फ़ारसी साहित्य एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक घटना थी, जो अन्य
भारतीय साहित्यों से (कम से कम भाषाई लक्षणों के आधार पर), और
फ़ारसी भाषी साहित्य की अन्य शाखाओं से, पर्याप्त रूप से
भिन्न थी.
तीसरी,
यूरोप से भिन्न, भारत में ‘राष्ट्रीय राज्यों” की स्थापना नहीं हुई, जहाँ राज्य
के सहारे नई भाषाएँ सशक्त हो सकें. 19वीं-20वीं शताब्दी तक ‘राष्ट्रीय
आन्दोलन’ भी नहीं थे, जो किसी नई भाषा
को अपना प्रतीक बना सकें. 15वीं-17वीं शताब्दी में लगभग समूचा उपमहाद्वीप ‘महान मुगलों’ के साम्राज्य द्वारा एकीकृत कर दिया
गाअ था (जिसकी शासकीय भाषा थी फ़ारसी), और 17वीं-19वीं
शताब्दी में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के द्वारा (जिसमें अंग्रेज़ी भाषा का बोलबाला
था). मध्ययुगीन यूरोप में लैटिन की ही भाँति, भारत में भी
ठेठ 19वीं-20वीं शताब्दी तक क्लासिकल भाषाएँ – हिन्दुओं के लिए संस्कृत, मुसलमानो के लिए अरबी या फ़ारसी (और तत्पश्चात् नये, यूरोपीकृत
बुद्धिजेवियों के लिए अंग्रेज़ी) – उच्च सांस्कृतिक स्तर की भाषाएँ थीं. नई भाषाओं
में साहित्य का विकास मानो ‘क्लासिकल’
भाषाओं की छाया में होता रहा.
केवल पिछली लगभग डेढ़-दो
शताब्दी में हुए सशक्त परिवर्तन, जो भारतीय तथा
यूरोपीय के गहन परस्पर प्रभाव से संबंधित हैं, इण्डॉ-आर्यन
एवम् द्रविड़ भाषाओं को प्रथम पंक्ति में लाए. 19वीं-20वीं शताब्दी में ही जीवन्त भारतीय
भाषाओं में साहित्यों की, इस शब्द के आधुनिक अर्थ में –
अर्थात् ललित साहित्य की, प्रकाशित पुस्तकों के रूप में,
पाठकों की कमोबेश बड़ी संख्या के उपयोग हेतु – रचना हुई. ये भाषाएँ
एवम् साहित्य, नव यूरोपीय भाषाओं एवम् साहित्यों की भाँति,
विशाल मानव समुदायों – राष्ट्रीय अथवा राष्ट्रीयवत् – की
सम्पत्तियों के रूप में देखी जाने लगीं.
चौथी,
भारतीय संस्कृति की, और विशेषतः भारतीय
साहित्य की एक अन्य विशेषता को रेखांकित करना होगा : प्राचीन पर्तें अक्सर पूरी
तरह सिमट नहीं जातीं, अपितु किसी न किसी तरह से बाद की एवम्
अत्यन्त आधुनिक पर्तों के साथ-साथ विद्यमान रहती हैं. उदा. वैदिक साहित्य, जो मूल रूप से ईसा पूर्व द्वितीय-प्रथम सहस्त्राब्दि में रचा गया था,
किन्हीं वास्तविक अर्थों में आज भी विद्यमान है, क्योंकि भारत (दक्षिण एशिया) में ऐसे काफ़ी लोग हैं, जिनके
लिए यह साहित्य आत्मिक आहार के समान है – कभी-कभी किन्हीं दूसरे, काफ़ी बाद के साहित्यों के साथ-साथ (अर्थात् हम ऐसे व्यक्तियों के
द्विसाहित्यीय अथवा बहुसाहित्यीय होने की बात कर सकते हैं). वैदिक साहित्य को
ग्रहण करने की परंपरा(किसी न किसी रूप में) भारत में कभी भी खण्डित नहीं हुई.
लगभग यही बात कही जा सकती
है प्राचीन भारतीय वाङ्मय (‘महाभारत’, ‘रामायण’, ‘पुराणों’ आदि),
और तथाकथित क्लासिकल
संस्कृत साहित्य के बारे में. ‘महाभारत’, ‘रामायण’ ‘पुराण’ और इनसे
संबंधित वाङ्मय आज तक अधिकांश भारतीयों के लिए आवश्यक आत्मीय आहार है. लोकप्रियता
एवम् महत्व की दृष्टि से ‘महाभारत’ तथा
‘रामायण’ का मुकाबला आधुनिक भारतीय
साहित्य की कोई भी रचना नहीं कर सकती. यह बात ध्यान देने योग्य है कि दक्षिणी
एशिया के अधिकांश निवासी अब तक अशिक्षित हैं और वे साहित्य का, मुख्यत: रूप से रसास्वादन करते हैं. क्लासिकल संस्कृत साहित्यिक रचनाएँ,
स्पष्टत: सूक्ष्म संवेदनशीलता की मांग करती हैं. मगर आधुनिक भारत
में ऐसे भी काफ़ी लोग हैं, जिनके लिए कालिदास की कविताएँ भी
उतनी ही प्रिय एवम् बोधगम्य हैं, जितने के आधुनिक उपन्यास
(यूरोपियन अथवा भारतीय भाषाओं में). शायद, इस परिस्थिति के
लिए ‘द्वि-‘ अथवा ‘बहुसाहित्यिकता’ शब्द का प्रयोग उचित होगा.
इस प्रकार,
एक ओर संस्कृत साहित्य और दूसरी ओर नवभारतीय साहित्यों के बीच,
शायद, एक ‘विशिष्ट
समुदाय’ की बात की जा सकती है. स्पष्टत:, यह ‘विशिष्ट समुदाय’ अति अति
विशिष्ट प्रकार का है, दो या अनेक जीवन्नत साहित्यों के ‘विशिष्ट समुदायों’ से भिन्न है. मगर, संस्कृत साहित्य किसी न किसी अर्थ में आज तक जीवित है, अर्थात् इसकी प्राचीन रचनाएँ न केवल पढ़ी जाती हैं और उनका आदर किया जाता
है, बल्कि नई रचनाओं का निर्माण भी किया जाता है. भारतीय
गणराज्य की साहित्य अकादमी संस्कृत को आधुनिक भारतीय भाषाओं में से एक मानती है और
प्रतिवर्ष संस्कृत में श्रेष्ठ साहित्यिक रचना के लिए पुरस्कार प्रदान किए जाते
हैं, हाँलाकि, बेशक, आधुनिक संस्कृति के संदर्भ में इन रचनाओं के महत्व की तुलना नई भाषाओं में
रचनाओं से की जा सकती है.
भारतीय संस्कृति के विगत
में, निःसंदेह, इतिहासकार ‘विशिष्ट साहित्यिक समुदायों’ के कुछेक उदाहरण ढूँढ़
सकता था, जो आधुनिक विश्व में विद्यमान इस प्रकार के
उदाहरणों के पूरी तरह समान हैं. उदाहरण के लिए, संस्कृत एवम्
प्राकृत साहित्यों के सह अस्तित्व को, उनके चरम विकास के काल
में, इसी दृष्टि से देखा जा सकता था, और
काफ़ी बाद के समय में – संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और नई भाषाओं के साहित्यों के सह अस्तित्व को भी देखा जा सकता था.
भारत के दक्षिण में संस्कृत और द्रविड़ साहित्यों के और साथ ही विभिन्न द्रविड़
भाषाओं के साहित्यों के आपस में ‘विशिष्ट समुदाय’ विद्यमान थे. हमारे युग की दूसरी सहस्त्राब्दि में भारत की भूमि पर फ़ारसी
साहित्य भी विभिन्न ‘विशिष्ट समुदायों’ की ओर आकर्षित हुआ. आम तौर से फ़ारसी साहित्य, अनेक
शताब्दियों (10वीं से 20वीं शताब्दी तक) और अनेक देशों को – पश्चिम में आधुनिक
युगोस्लाविया21 से पूर्व में बंगाल तक – समेटता हुआ, विचाराधीन (अर्थात् ‘विशिष्ट साहित्यिक समुदायों’
की अवधारणा के शोध हेतु एक बढ़िया सामग्री प्रदान कर सकता है.
आगे हम अपनी बात दक्षिण
एशिया में 19वीं-20वीं शताब्दी के ‘विशिष्ट साहित्यिक
समुदायों’ के केवल कुछेक उदाहरणों के अवलोकन तक सीमित
रखेंगे.
दक्षिन एशिया की अन्य
भाषाओं के बीच हिन्दी तथा उर्दू बहुत महत्वपूर्ण हैं. इनमें से पहली तो भारतीय
गणराज्य की राजकीय भाषा घोषित की गई है, दूसरी –
पाकिस्तान की राजकीय भाषा है. इन भाषाओं के साहित्य उपमहाद्वीप के अत्यन्नत विकसित
एवम् समृद्ध साहित्यों की श्रेणी में आते हैं. ऐतिहासिक तथा आधुनिक परिप्रेक्ष्य
में इन दोनों भाषाओं और साहित्यों के बीच परस्पर संबंध काफ़ी जटिल है.
साहित्यिक भाषाओं के रूप
में हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही वास्तव में बोलचाल की भाषा के एक ही रूप का सहारा
लेती हैं, जिसे हिन्दुस्तानी या खड़ी बोली
कहते हैं22.
वार्तालाप की यह भाषा (या
उपभाषा, बोली), दिल्ली
शहर में रूढ़ हुई जो अनेक शताब्दियों तक विविध शासनों की राजधानी रह चुकी है. यहीं,
दिल्ली में ही, ‘महान मुग़लों’ के दरबार में 18वीं शताब्दी में साहित्यिक भाषा उर्दू का पूरी तरह से
निर्माण हुआ.
उर्दू साहित्य का ‘श्रेष्ठ काल’ (“the classical period”) – 17वीं-19वीं शताब्दी है23. उर्दू भाषा की लिपि अरबी-फ़ारसी है, उसके शब्दकोष में फ़ारसी तथा अरबी भाषा से लिए गए शब्दों की भरमार है. यह
कहा जा सकता है कि ठेठ 20वीं शताब्दी तक भारत में उर्दू एवम् फ़ारसी साहित्यों का ‘विशिष्ट समुदाय’ विद्यमान रहा. उर्दू के प्रमुख
कवियों ने फ़ारसी में भी रचनाएँ लिखीं, और उनके पाठकों का
बहुतांश द्वि-साहित्यिक था. 19वीं शताब्दी में उर्दू उत्तर भारत में दफ़्तरी कामकाज
की मुख्य भाषा बनी. इस भाषा को न केवल मुसलमान, बल्कि अनेक
शिक्षित हिन्दू भी जानते थे एवम् इसका उपयोग करते थे. 19वीं-20वीं शताब्दी के
उर्दू साहित्य के प्रमुख लेखकों में हिन्दू नाम भी थे. मगर 19वीं शताब्दी के
उत्तरार्ध से उर्दू उत्तर भारत में नयी मुस्लिम आत्म-जागृति को प्रकट करने का एक
प्रमुख माध्यम बनी (जिसके कारण इस भाषा को अंततः पाकिस्तान की राजकीय भाषा घोषित
किया गया.
उन्हीं भौगोलिक सीमाओं में
विकसित हो रही नई हिन्दू आत्म-जागृति ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अपने लिए
एक अन्य साहित्यिक भाषा का निर्माण किया, जो बोलचाल
की भाषा के उसी रूप पर, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आधारित थी जिस पर की उर्दू थी, मगर जिसने अपने लिए
एक अन्य लिपि (देवनागरी) का प्रयोग किया और हिंदुओं की पारंपरिक तथा पवित्र भाषा
संस्कृत की शब्दावली क प्रयोग किया. इस भाषा का नाम पड़ा “हिन्दी” (शब्दशः “हिन्द
की” याने “[उत्तर] भारत की”, “[उत्तर] भारतीय”)24.
अनेक कारणोंवश, जिनका उल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है,
हिन्दी, समय के साथ, उत्तर
भारत की प्रमुख साहित्यिक भाषाओं में से एक हो गई, अपनी अनेक
निकट संबंधी (उप) भाषाओं: ब्रज, अवधी, मैथिली,
राजस्थानी इत्यादि को खदेड़कर या उन पर ग्रहण लगाकर. ये भाषाएँ,
जिनकी अपनी साहित्यिक परंपराएँ हैं, 20वीं
शताब्दी में हिन्दी की ‘बोलियों’ (उपभाषाओं)
के रूप में देखी जाने लगीं. यह कहना आवश्यक होगा कि हिन्दी कुछ ही लोगों के लिए
घरेलू प्रयोग की भाषा है. तथाकथित ‘हिन्दी भाषी क्षेत्र’
का बहुतांश घर पर बोलचाल हेतु ‘बोलियों’
का ही प्रयोग करता है.
हिन्दी भाषा एवम् उसके
साहित्य का निर्माण उर्दू भाषा तथा उसके साहित्य के साथ काफ़ी कड़े संघर्ष के मध्य हुआ.
यह प्रक्रिया उत्तर भारत में हिन्दुओं एवम् मुसलमानों के बीच परस्पर संबंधों के
जटिल एवम् दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास को प्रतिबिंबित करती है. वे भारतीय राजनीतिज्ञ
एवम् विचारक, जिन्होंने किसी प्रकार हिन्दुओं
तथा मुसलमानों में समझौता कराकर उन्हें एकत्रित करना चाहा (उदा. मो.क.गांधी),
किसी एक ‘मध्य’ भाषा की
रचना का आह्वान करते हुए हिन्दी-उर्दू के दुहरेपन को दूर करने के लिए भी
प्रयत्नशील थे (गांधी ने उस ‘मध्य’भाषा
को ‘हिन्दुस्तानी’ का नाम दिया). मगर
ये आह्वान केवल ख़ुशनुमा ख़्वाहिश ही बने रहे. हिन्दी और उर्दी दो विभिन्न साहित्यिक
भाषाएँ बनी रहीं, और उनके साहित्य – दो अलग-अलग साहित्य (साथ
ही आजकल पाकिस्तान के उर्दू साहित्य तथा भारतीय गणराज्य के उर्दू साहित्य के बीच
भी कुछ विभिन्नता है)25. इन साहित्यों का मूलतः विभिन्न पाठक वर्ग है,
हाँलाकि द्वि-साहित्यिक पाठकों की भी कुछ संख्या है.
हिन्दी और उर्दू साहित्यों
के बीच संबंध ने दुहरी प्रतिबद्धता वाले लेखकों का अस्तित्व प्रस्थापित किया. इस
प्रकार, दोनों साहित्य (हिन्नदी और उर्दू)
फ़ारसी कवि अमीर ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) को अपने लेखकों की श्रेणी में रखते हैं.
अमीर ख़ुसरो को उस भाषा में रचनाओं का रचयिता मानते हैं, जिसे
स्वयम् कवि ‘हिन्दवी’ कहते थे; और वास्तव में यह भाषा आधुनिक हिन्दी और उर्दू का पूर्वरूप है. दूसरा
उदाहरण है – ‘रानी केतकी की कहाँई’ का,
जिसके लेखक – इन्शा (1766-1818) – उर्दू के कवि थे, मगर यह ‘कहानी’ उन्होंने अपनी
ही तरह का प्रयोग करते हुए लिखी – अरबी, फ़ारसी तथा शुद्ध
संस्कृत शब्दों के प्रयोग से बचते हुए. परिणाम स्वरूप इस ‘कहानी’
की भाषा को आजकल हिन्दी का अपनी ही तरह का एक रूप माना जाता है,
हाँलाकि, बेशक, उसे उतने
ही अधिकार के साथ उर्दू का रूप भी माना जा सकता है26. आधुनिक
द्विसाहित्यिक अवस्था से विगत पर दृष्टि डालने के परिणाम स्वरूप इन दोनों उदाहरणों
में लेखकों (अमीर ख़ुसर एवम् इन्शा) की, या यह कहना अधिक सही
होगा कि उनकी कुछ रचनाओं की, दुहरी प्रतिबद्धता निर्धारित की
गई है. हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक महत्वपूर्ण गद्य लेखक प्रेमचन्द (1880-1936)
के दुहरे संबंध की प्रकृति भिन्न है. प्रेमचन्द ऐसे हिन्दुओं में से थे, जो पहले मुग़ल एवम् तत्पश्चात् ब्रिटिश शासन में सेवारत थे और इसलिए उर्दू
भली प्रकार जानते थे. प्रेमचन्द की आरंभिक शिक्षा उर्दू में हुई और अपनी आरंभिक
रचनाएँ भी उन्होंने इसी भाषा में लिखीं. मगर 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक से लेखक
हिन्दी की ओर मुड़े, जो नई भाषा के बढ़ते हुए महत्व को
प्रदर्शित करता है. मगर, बाद में भी प्रेमचंन्द की सभी
रचनाएँ हिन्दी और उर्दू, दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं.
प्रेमचन्द आम तौर पर काफ़ी सरल भाषा में लिखते थे, जो बोलचाल
की भाषा के निकट थी, और, स्पष्टतः,
कभी कभी उस साहित्यिक आदर्श के निकट पहुँच जाया करती (जो
हिन्दी-उर्दू के दुहरेपन को मात देती थी), और जिसके लिए मो.
क. गांधी प्रयत्नरत थे27.
भारतीय गणराज्य में,
जहाँ हिन्दी और उर्दू साहित्यों का सह-अस्तित्व निरंतर जारी है,
ऐसी रचनाएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं, जो समान
मात्रा में दोनों साहित्यों की मिल्कियत कही जा सकती हैं. मिसाल के लिए, कोई कवि उर्दू साहित्य की परंपरानुसार ग़ज़ल की रचना कर सकता है (यथायोग्य
प्रतीकों, छन्दों आदि का उपयोग करते हुए), मगर यदि वह अपने पद्यों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से न लादे और और उन्हें
देवनागरी में प्रकाशित करे (या मंच से उनका पठन करे), तो ऐसी
ग़ज़लों को हिन्दी पाठकों द्वारा भी ग्रहण किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में,
उर्दू तथा हिन्दी-साहित्य की संदेह-रहित भिन्नता में भी भिन्न-भिन्न
‘सीमारेखा स्थित’ घटनाएँ भी संभव हैं.
क्या उनका (ऐसी ‘सीमारेखा स्थित’ घटनाओं
का) कोई भविष्य है, यह तो समय ही बताएगा.
इस बात पर ज़ोर देना
महत्वपूर्ण है कि हिन्दी तथा उर्दू साहित्य ‘राष्ट्रीय
साहित्यों’ की श्रेणी में नहीं आते, यति
इस शब्द के यूरोपियन अर्थ के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो. न तो ‘हिन्दी राष्ट्र’ का अस्तित्व है, और न ही ‘उर्दू राष्ट्र’ का.
तथाकथित ‘हिन्दी क्षेत्र’ की जनता अब
तक अत्यन्त विभाजित और बहुतांश में अस्पष्ट जातीय ( ethnic) आत्मचेतना
युक्त है, और यह कहना कठिन है कि भविष्य में क्या यह जनता
किसी एक संगठित जाति (ethnos) का निर्माण करेगी या इसके आधार
पर अनेक विभिन्न जातियों की रचना होगी28.
इस संभावना की पुष्टि,
अन्य बातों के अलावा, ‘हिन्दी भाषी क्षेत्र’
का आधुनिक साहित्यिक जीवन भी करता है. उत्तर भारत की कई ‘कनिष्ठ’ भाषाएँ आजकल अपने स्वतन्त्र साहित्यिक
अस्तित्व के लिए काफ़ी जोश से संघर्ष कर रही हैं, और इस बात
के लिए भी कि, उन्हें ‘हिन्दी की
बोलियाँ’ समझना बन्द किया जाए जिनके अपने साहित्य हैं29.
इन भाषाओं की श्रेणी में हैं, उदाहरणार्थ, मैथिली तथा भोजपुरी. इन भाषाओं के शिक्षित व्यक्तियों को (कम से कम)
द्विसाहित्यीय समझा जा सकता है, क्योंकि उन सभी को हिन्दी का
भी ज्ञान है और अपनी ‘कनिष्ठ’ “घरेलू
भाषा” का भी. इनमें से कुछ व्यक्ति, जो अंग्रेज़ी जानते हैं,
त्रिसाहित्यीय हो सकते हैं30.
ऐसी परिस्थिति में,
ज़ाहिर है, दुहरी प्रतिबद्धता वाले लेखक भी
उत्पन्न होंगे. उदाहरणार्थ, हिन्दी के प्रसिद्ध गद्य तथा
पद्य लेखक – नागार्जुन तथा मैथिली के प्रसिद्ध गद्य तथा पद्य लेखक – यात्री,
एक ही व्यक्ति हैं, जिनका नाम है वैद्यनाथ
मिश्र (जन्म 190831), जो अपनी मातृभाषा 31(मैथिली)
में लिखते हैं, और साथ ही हिन्दी में भी (प्रसंगवश, वे संस्कृत में भी कविताएँ लिखते हैं). बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध शोधकर्ता
राहुल सांस्कृत्यायन (1893-1963) ने हिन्दी में उपन्यास लिखे हैं, मगर वे आधुनिक भोजपुरी साहित्य के प्रणेता भी हैं.
इस प्रकार,
हिन्दी साहित्य एक ओर उर्दू साहित्य के साथ ‘विशिष्ट
समुदाय’ के अन्तर्गत है, तथा दूसरी ओर ‘हिन्दी भाषी क्षेत्र’ की ‘कनिष्ठ
भाषाओं’ के साहित्य के साथ भी, जो मानो
हिन्दी साहित्य की ‘छत्र छाया’ में बढ़
रहे हैं. पाकिस्तान में भी उर्दू साहित्य की ‘छत्र छाया’
में ‘स्थानीय साहित्यों’ (सूबाई अदबों’): पंजाबी, सिंधी,
बलूची, गुजराती तथा पुश्तू का विकास हो रहा
है. चूँकि पाकिस्तान में उर्दू भाषा एवम् उसके साहित्य का प्रभुत्व है, अन्य साहित्य इस प्रभुता संपन्न साहित्य के साथ ‘विशिष्ट
समुदाय’ की सीमाओं में विकसित हो रहे हैं; और यह प्रक्रिया संघर्षरहित नहीं है.
19वीं शताब्दी में तथा
20वीं शताब्दी के आरंभ में उपमहाद्वीप के पूर्व में कुछ ऐसा ही घटित हुआ. नई
भाषाओं में सर्वप्रथम विकास को प्राप्त हुई बंगाली भाषा,
जो स्थानीय जातियों में बहुसंख्यक जाति की भाषा है. बंगाली साहित्य
ने 19वीं शताब्दी में ही महान सफ़लताएँ प्राप्त कीं (और 20वीं शताब्दी में उसने
विश्व स्तर के महान लेखक, एशिया में सर्वप्रथम साहित्य का
नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले – रवीन्द्रनाथ टैगोर की देन दी). ब्रिटिश
प्रशासनिक अधिकारियों के रूप में बंगालियों का पड़ोसी जातीय क्षेत्रों, विशेषतः आसाम एवम् उड़ीसा में, वर्चस्व था. असमिया और
उड़िया भाषाओं को (जो वास्तव में ब6गाली के काफ़ी निकट हैं)
बंगाली (‘भद्रलोक’) सिर्फ स्थानीय
बोलियाँ समझते थे. आसाम और उड़ीसा के स्थानीय देशभक्तों को बंगाली से भाषाई तथा
साहित्यिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा. यह संघर्ष
सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हुआ, मगर असमिया एवम् उड़िता साहित्य
19वीं-20वीं शताब्दियों में अपने अधिक सशक्त पड़ोसी, बंगाली
साहित्य के महत्वपूर्ण प्रभाव तले ही विकसित होते रहे. कई शिक्षित आसामी एवम्
उड़िया व्यक्ति आज भी द्विभाषिक हैं (अर्थात् उनका बंगाली पर भी प्रभुत्व है – केवल
इसलिए कि बंगाल की राजधानी, कलकत्ता, अनेक
वर्षों तक अपने पड़ोसी जातीय क्षेत्रों के लिए भी शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बनी
रही) और, परिणामस्वरूप द्विसाहित्यिक भी. दुहरी प्रतिबद्धता
वाले लेखक भी हैं. उदाहरणार्थ, प्रसिद्ध बंगाली पद्य एवम्
गद्य लेखक अन्नदाशंकर राय (1904- 2002) ने अपना साहित्यिक
कार्यकलाप उड़िया कवि के रूप में आरंभ किया था (वे उड़ीसा में रहते थे और उन्होंने
वहीं शिक्षा प्राप्त की थी)33.
उसी ‘विशिष्ट समुदाय’ से मैथिली साहित्य को भी संबंधित
किया जा सकता है, जो, जैसा कि हम ऊपर
देख चुके हैं हिन्दी साहित्य के साथ भी ‘विशेष्ट समुदाय’ के अंतर्गत है. मैथिली भाषा हिन्दी एवम् बंगाली के मध्य स्थानापन्न है
(शायद वह बंगाली के अधिक निकट है) और प्राचीन काल में मिथिला (मैथिली भाषी
क्षेत्र) का बंगाल से घनिष्ठ संबंध था, बजाय ‘हिन्दी भाषी क्षेत्र’ (हिन्दुस्तान) से. शिक्षित
मैथिल हिन्दी तथा बंगाली दोनों भाषाओं में पढ़ सकता है34. शिक्षित
बंगाली आसानी से मैथिली में लिखे लेख को पढ़ सकता है (हाँलाकि यह कहना कठिन है,
कि कोई बंगाली आधुनिक मैथिली साहित्य पढ़ता है अथवा नहीं). कुछ ऐसी
प्राचीन पद्यात्मक रचनाएँ हैं, जिन्हें बंगाली अपने साहित्य
के स्मारक मानते हैं, और आसामी, उड़िया
तथा मैथिली अपने अपने साहित्यों के35.
20वीं शताब्दी में बंगाली
साहित्य में फूट गई जिसके फ़लस्वरूप किसी निश्चित अर्थ में दो प्रकार के बंगाली
साहित्यों ने जन्म लिया36.
13वीं से 18वीं शताब्दी तक
बंगाल में मुसलमानों का शासन था, और जनसंख्या का
काफ़ी बड़ा भाग मुसलमानों में परिवर्तित किया गया. मगर 19वीं शताब्दी में, जब आधुनिक बंगाली संस्कृति एवम् साहित्य की स्थापना हो रही थी, तो इसमें हिन्दुओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी, और
इसलिए नया बंगाली साहित्य मुख्यतः बंगाली-हिन्दुओं की आत्म चेतना को प्रदर्शित
करता रहा. बंगाल का शिक्षित मुस्लिम वर्ग मुख्यतः उर्दू का प्रयोग कर रहा था,
और बंगाली-मुसलमानों का योगदान 19वीं-20वीं शताब्दी के आरंभ के
बंगाली साहित्य के विकास में नगण्य था. पहला मुसलमानी लेखक, जिसे
पूरे बंगाल में मान्यता प्राप्त हुई थी, वह था नज़रूल इस्लाम
(1899-1976). 20वीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशकों में बंगाली मुसलमानों को
उपमहाद्वीप के सभी मुसलमानों के लिए एक साझे राज्य के रूप में पाकिस्तान के विचार
ने आकर्षित किया. कुछ साहित्यकारों ने विशिष्ट बंगाली-मुसलमानी साहित्य के निर्माण
का प्रयत्न भी किया, जिसकी भाषा आम बंगाली भाषा से लगभग वैसी
ही बिन्न होती, जैसी कि उर्दू हिन्दी से है. मगर ये प्रयत्न
सफ़ल नहीं हुए. जैसा कि सर्वविदित है, पूर्वी बंगाल (मुख्यतः
मुसलमानों द्वारा आवासित) सन्न 1947 से 1971 तक पाकिस्तान में शामिल हो गया,
मगर इसके बाद एक स्वतन्त्र देश बांग्लादेश गणराज्य बन गया. जब
पूर्वी बंगाल पाकिस्तान में था उस समय, एवम् उसके स्वाधीनत
अप्राप्त करने के बाद के काल में भी देश में साहित्य का विकास ज़ोर शोर से हुआ और
हो रहा है. स्वयम् बांग्लादेशियों के बीच भी ‘बांग्लादेशी
साहित्य’ एवम् ‘बांग्ला साहित्य’
की अवधारणाओं के बीच संबंध के बारे में अलग अलग दृष्टिकोण हैं. एक
वर्ग बंगाली भाषा के साहित्य की मूलभूत एकता पर ज़ोर देता है. दूसरा वर्ग, इसके विपरीत, बांग्लादेशी साहित्य की शेष बंगाली
साहित्य से विषमता के कुछ बिन्दुओं पर ज़ोर देता है. एक निष्पक्ष शोधकर्ता कुछ ऐसी
विशेषताओं को देखे बग़ैर नहीं रह सकता, जो वास्तव में
बांग्लादेशी साहित्य को उस बंगाली साहित्य से अलग करती है, जो
वर्तमान में भारतीय गणराज्य में (पश्चिम बंगाल में) विकसित हो रहा है. हिन्दू तथा
मुस्लिम परम्पराओं के मध्य भेद भी परिलक्षित होते हैं, और
पश्चिमी एवम् पूर्वी बंगाल में) विकसित हो रहा है. हिन्दू तथा मुस्लिम परंपराओं के
मध्य भेद भी परिलक्षित होते हैं, और पश्चिमी एवम् पूर्वी
बंगाल के प्राकृतिक, सामाजिक, एवम्
जातीय परिवेश में भी भेद दिखाई देते हैं, और यह वस्तुस्थिति
भी प्रदर्शित होती है कि लगभग एक चौथाई शताब्दी तक पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का एक
भाग था और अब एक स्वतन्त्र देश है. समान परंपराएँ और समान भाषा – ये एक दूसरे को
जोड़ने वाले प्रमुख कारण हैं, मगर साथ ही पृथक्कारी कारण भी
कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. कुछ बांग्लादेशी लेखक बांग्लादेशी और बंगाली साहित्यों के
बीच परस्पर संबंधों की विभिन्न आंग्ल भाषी साहित्यों (उदाहरणार्थ अमेरिकन एवम् मूल
अंग्रेज़ी) के मध्य परस्पर संबंधों की तुलना करते हैं, और इस
प्रकार का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से उचित प्रतीत होता है (हाँलाकि, शायद, जर्मनभाषी विश्व से समानता दर्शाना ज़्यादा
उचित होता). भविष्य का परिप्रेक्ष्य इस बात पर निर्भर करता है कि भारतीय गणराज्य
एवम् बांग्लादेश के बीच, और बंगाली-हिन्दुओं तथा
बंगाली-मुसलमानों के बीच संबंध कैसे बनते हैं.
ये उदाहरण,
हमारी राय में, यह सिद्ध करते हैं कि ‘विशिष्ट साहित्यिक समुदाय’ की अवधारणा एक भारतविद्द-
तथा समग्र पूर्व के अध्ययन के लिए कितनी महत्वपूर्ण है. साथ ही, इन उदाहरणों से यह भी पर्याप्त रूप से स्पष्ट होता है, कि राष्ट्रीय साहित्यों के ‘विशिष्ट समुदाय’ एक अधिक विस्तृत घटना का केवल एक आंशिक रूप है, अर्थात्,
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ‘विशिष्ट
समुदायों’ का अस्तित्व अन्य प्रकार के साहित्यों के बीच भी
हो सकता है, जिनका एक विभिन्न प्रकार का सामाजिक आधार है. यह
भी कहना होगा कि ‘विशिष्ट समुदाय’ साहित्यों
के बीच किसी निश्चित प्रतिद्वन्द्विता और वैमनस्य से इन्कार नहीं करता (विशेष
संघर्षमय उदाहरण है – हिन्दी एवम् उर्दू साहित्यों का, जिनके
बीच का परस्पर संबंध उत्तर भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच परस्पर संबंध
को प्रकट करता है).
‘विशिष्ट
साहित्यिक समुदाय’ की अवधारणा एवम् इससे जुड़ी सभी अवधारणाओं
के समूह का भावी तथा अधिक गहन अध्ययन निःसंदेह साहित्य शास्त्र की – इस शब्द के
पारंपरिक अर्थ के संदर्भ में – सीमाओं को पार करके अन्य शास्त्रों की परिधि में
जाने की मांग करता है, जैसे इतिहास, जातीय
विज्ञान, समाज शास्त्र, भाषा शास्त्र
(इसी संदर्भ में सामाजिक भाषा शास्त्र भी), पॉलिटोलॉजी आदि.
स्पष्ट है, कि इसमें कोई विचित्र एवम् असामान्य बात नहीं है.
इसके विपरीत, विभिन्न विज्ञानों की आपस में घुसपैठ तथा उनका
एकत्रीकरण आधुनिकता की विशेषता है. यह सर्वविदित है कि बहुमूल्य परिणाम अक्सर
विज्ञानों की ‘सीमा रेखाओं’ पर ही
प्राप्त होते हैं. साथ ही, विभिन्न शास्त्रों के बीच की सीमा
रेखाएँ उतनी ही परिस्थितिजन्य हैं, जितनी कि विभिन्न
साहित्यों के बीच की सीमारेखाएँ.
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